क्यों घट गई भाजपा की सीटें, जनता ने बता दिया BJP को क्यों हराना पड़ा,यह है 10 बड़े कारण

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क्यों घट गई भाजपा की सीटें, जनता ने बता दिया BJP को क्यों हराना पड़ा,यह है 10 बड़े कारण



क्यों घट गई भाजपा की सीटें, जनता ने बता दिया BJP को क्यों हराना पड़ा,यह है 10 बड़े कारण




दिल्ली
 लोकसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं. असल परिणाम एग्जिट पोल से बिल्कुल अलग हैं. बीजेपी बहुमत के आंकड़े को पार नहीं कर पाई. उत्तर प्रदेश में उसे बड़ा नुकसान हुआ है.
यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से बीजेपी को 33 सीटें ही मिली हैं. इस बार यूपी में सपा का जादू चला. अखिलेश यादव ने ऐसी बिसात बिछाई की बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी. यहां तक कि अयोध्या की सीट भी बीजेपी को गंवानी पड़ी. बीजेपी के फैजाबाद लोकसभा सीट हारने के बाद अयोध्या की खूब चर्चा हो रही है. सवाल उठाए जा रहे हैं कि आखिर जिस अयोध्या में बीजेपी ने राम मंदिर बनाया वहीं से कैसे चुनाव हार गई. राजनीतिक विश्लेषकों और अयोध्यावासियों का इस पर कहना है कि दलित मतों के ध्रुवीकरण के चलते बीजेपी को अपनी सीट गंवानी पड़ी. 


यह इस बात का संकेत है कि जनता सरकार चलाने के योग्य तो अभी भी भाजपा को मानती है, लेकिन साथ ही वह उसकी नीतियों और कार्यप्रणाली में कुछ बदलाव भी चाहती है। भाजपा की सीटें घटी हैं, लेकिन आगे उसकी स्थिति में कमजोरी न आए, इसके लिए उसे उन बड़े कारणों पर खुले मन से विचार करना चाहिए, जिसके कारण उसके प्रदर्शन में कमी आई है। भाजपा के इस कमजोर प्रदर्शन के लिए जिन दस सबसे बड़े कारणों को अहम माना जा रहा है, वे इस प्रकार हैं- 

1- यूपी में भ्रम पड़ा भारी


भाजपा ने इस चुनाव में 240 सीटें हासिल की हैं। उसे 63 सीटों का नुकसान हुआ है। अकेले उत्तर प्रदेश में पार्टी को 29 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है। यदि भाजपा को अकेले उत्तर प्रदेश में नुकसान न होता, तो वह लगभग अकेले दम पर बहुमत पाने की स्थिति (272 सीट) में आ जाती। यानी कहा जा सकता है कि केवल उत्तर प्रदेश में भाजपा को हुए नुकसान ने पार्टी को अपने दम पर सत्ता बनाने की स्थिति से दूर कर दिया। 

 अमर उजाला में छपी खबर के मुताबिक यूपी भाजपा की सबसे बड़ी ताकत के तौर पर उभरा था, लेकिन इस चुनाव में यूपी की सियासत को लेकर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से कई गलतियां हुई हैं, जिसका उसे नुकसान उठाना पड़ा। उन्होंने कहा कि पुरुषोत्तम रूपाला प्रकरण के बाद राजपूत मतदाताओं की नाराजगी के कारण भाजपा को गुजरात, राजस्थान से लेकर उत्तर प्रदेश तक भारी पड़ा है। 

भाजपा ने इस दूरी को पाटने की कोई बड़ी कोशिश नहीं की। उलटे जब योगी आदित्यनाथ को चुनाव के बाद यूपी के मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने की बात विपक्षी दलों के द्वारा फैलाई गई, उसका पार्टी के स्तर पर बड़ा जवाब नहीं दिया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने अपनी जनसभाओं में योगी आदित्यनाथ की प्रशंसा तो अवश्य की, लेकिन वे मानते हैं कि इस मुद्दे पर मोदी-शाह या जेपी नड्डा को जितना खुलकर बोलना चाहिए था, उन्होंने नहीं बोला। इससे राजपूत मतदाताओं को अपने बड़े नेता को महत्त्वपूर्ण पद से खोने का डर पैदा हुआ। इस स्थिति ने रुपाला प्रकरण से पैदा हुए नुकसान को और गाढ़ा करने का काम किया। भाजपा को इससे नुकसान हुआ। 

2- प्रत्याशी नहीं बदलना पड़ा भारी



भाजपा ने इस चुनाव में उत्तर प्रदेश में ज्यादातर अपने पुराने चेहरों पर ही दांव लगाया है। जबकि उसकी पुरानी नीति रही है कि वह लगभग एक तिहाई चेहरों को बदलकर एंटी इनकंबेंसी फैक्टर को कमजोर करने का काम करती रही है। लेकिन इस चुनाव में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में, विशेषकर पूर्वांचल के इलाके में, वर्तमान सांसदों को ही टिकट दे दिया। इसमें कई सांसद पिछले दस साल से अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जिससे उनके खिलाफ जनता में काफी आक्रोश था। डॉ. महेंद्र प्रताप सिंह के अनुसार, यदि भाजपा ने अपने उम्मीदवारों को बदल दिया होता तो उसे पूर्वांचल में ज्यादा बड़ी सफलता मिल सकती थी। 

3- बाहरी नेताओं पर भरोसा


भाजपा ने इस चुनाव में लगभग 28 फीसदी टिकट ऐसे उम्मीदवारों को थमाया है, जो पिछले 10 साल में दूसरे दलों से पार्टी में आए हैं, जबकि इसी दौरान पार्टी ने अपने ही कई बड़े-बड़े दिग्गजों को घर बिठा दिया। इससे पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं में अपनी उपेक्षा का भाव बढ़ा है। बड़े नेताओं ने खुले तौर पर बगावत भले ही न की हो, लेकिन वे चुनाव के दौरान सुस्त हो गए। उनके समर्थकों ने भी चुनाव में सुस्ती दिखाई। इसका परिणाम हुआ कि पार्टी का एक बड़ा वोट बैंक बाहर नहीं निकला। इसका पार्टी को नुकसान हुआ। 

भाजपा नेताओं की आपसी बातचीत में अब 'कांग्रेस वाली भाजपा' और 'आम आदमी पार्टी वाली भाजपा' जैसे जुमले कहे-सुने जा सकते हैं। दूसरी पार्टियों से आए हुए नेताओं को न केवल टिकट मिला है, बल्कि कई को राज्यसभा के आसान दरवाजे से संसद पहुंचा दिया गया है। इससे पार्टी के उपेक्षित नेता असहज हैं। मूल रूप से भाजपा के नेताओं के अंदर कहीं न कहीं अपनी उपेक्षा का भाव पैदा हो रहा है जिसका प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से पार्टी पर असर पड़ रहा है। इस पर उसे एक समग्र नीति बनाकर चलने की नीति अपनानी चाहिए जिससे बाहर के आने वाले नेताओं का लाभ भी लिया जा सके, लेकिन अपने मूल नेताओं की उपेक्षा भी न हो। 

4- आरएसएस से तालमेल में कमी


जिस दिन से इस लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई है, उसके बाद से लेकर चुनाव परिणाम घोषित होने तक आरएसएस के किसी भी बड़े नेता ने सरकार या भाजपा के कामकाज को लेकर कोई बड़ा बयान नहीं दिया है। पूरे चुनाव के दौरान इस बात की चर्चा होती रही कि इस चुनाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) शिथिल पड़ गया है। पार्टी के नेताओं ने इस दूरी को पाटने की कोई कोशिश नहीं की। उलटे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने एक बयान से दोनों संगठनों में दूरी होने का संकेत गया। इससे पार्टी को नुकसान हुआ। 

5- कार्यकर्ताओं की उपेक्षा 



भाजपा की दिवंगत नेता सुषमा स्वराज ने एक बार चुनावों के दौरान पार्टी कार्यकर्ताओं को कहा था कि वे पूरे मनोयोग से पार्टी के लिए काम करें। सत्ता में आने के बाद पार्टी पांच लाख कार्यकर्ताओं को उचित स्थानों पर समायोजित करने का काम करेगी। लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं की शिकायत है कि अब पार्टी में कार्यकर्ताओं की चिंता करने वाला कोई नेता नहीं है। पार्टी के दस साल सत्ता में रहने के बाद भी उनके कोई काम नहीं होते। पार्टी को ऐसे कार्यकर्ताओं को संतुष्ट करने की सोच दिखानी पड़ेगी जो मतदाताओं को बूथ तक लाने के लिए अंतिम रूप से जिम्मेदार होते हैं। 

6- केवल एक नेता पर भरोसा


 अमर उजाला में छपी खबर के मुताबिक भाजपा ने पिछले दस सालों में अपने आपको पूरी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर निर्भर कर लिया है। यह कॉर्पोरेट कल्चर की 'ब्रांडिंग रणनीति' कही जाती है, जिसमें एक ब्रांड के चलने के बाद उसके चाहे जितने आउटलेट खोले जाएं, वे बाजार में चल जाते हैं। लेकिन राजनीति में यह कॉर्पोरेट कल्चर नहीं चलता है। भारत जैसे बहुविविधता वाले देश में अलग-अलग जातियों, समुदायों, वर्गों की अलग-अलग प्राथमिकताएं होती हैं। इन्हें केवल एक ब्रांड के सहारे नहीं संभाला जा सकता।

भाजपा ने पिछले दिनों अपने बड़े-बड़े नेताओं को ठिकाने लगाकर ऐसे नेताओं को बड़े पदों पर बिठाया है, जो अपने दम पर चुनाव जिताने की क्षमता नहीं रखते। राजस्थान में पार्टी ने अपनी ही बड़ी नेता वसुंधरा राजे सिंधिया को नजरअंदाज किया, जबकि एक ऐसे नेता को मुख्यमंत्री बनाया, जो अपने स्तर पर चुनाव जिताने की कोई क्षमता नहीं रखते। राजस्थान में भाजपा को हुए बड़े नुकसान के पीछे इस कारण को समझा जा सकता है। पार्टी की यह रणनीति दूसरे राज्यों में भी जारी रही है जिसका उसको काफी नुकसान हुआ है। 

7- महंगाई-बेरोजगारी


डॉ. विवेक सिंह ने कहा कि इस चुनाव में महंगाई-बेरोजगारी सबसे बड़े मुद्दों में शामिल थी। भाजपा ने आंकड़ों के आधार पर यह दावा किया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासनकाल में पिछली सरकारों से महंगाई दर कम रखने में सफलता पाई है, लेकिन उसे समझना होगा कि गरीबों को आंकड़ों की भाषा समझ में नहीं आती। यदि उनकी जिंदगी महंगाई के कारण कठिन होगी, तो उसका नुकसान उठाना पड़ेगा। 

इसी प्रकार वर्तमान सरकार में बेरोजगारी की दर कम होने का दावा किया जा रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि बेरोजगार युवाओं की संख्या लगातार बढ़ी है। स्टार्टअप इंडिया जैसे कदम प्रभावी असर छोड़ने में असफल रहे हैं। सीएसडीएस के आंकड़े बता रहे हैं कि इस बार युवाओं ने भाजपा की बजाय कांग्रेस को काफी ज्यादा वोट दिया है, जबकि अब तक पहली बार के वोटरों और युवा मतदाताओं में भाजपा की पैठ ज्यादा मजबूत मानी जाती रही थी। भाजपा को उन कारणों की ईमानदारी से समीक्षा करनी पड़ेगी कि युवाओं के अंदर उसके प्रति यह बदलाव क्यों आया?

8- ओपीएस-अग्निवीर का नुकसान पड़ा भारी


पुरानी पेंशन नीति के कारण जहां लाखों कर्मचारी भाजपा से नाराज थे, वहीं सेना में नौकरी करने के अवसरों में कमी आई है। अग्निवीर योजना की सरकार चाहे जितनी प्रशंसा करे, लेकिन असलियत यह है कि इसे लेकर युवाओं में भारी नाराजगी है। यह नुकसान भाजपा को भारी पड़ा है। भविष्य में भाजपा को ज्यादा से ज्यादा रोजगार देने वाली नीतियों को आगे बढ़ाना होगा। 

9- अन्य कारण 

ज्यादा गर्मी में चुनाव होने से भी मतदान पर असर पड़ा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनावों के दौरान यह दावा करते रहे हैं कि जो मतदाता नहीं निकल रहे हैं, वे विपक्षी दलों के मतदाता हैं। लेकिन अब तक के चुनाव परिणाम यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि भाजपा के ही मतदाताओं ने चुनावों से दूरी बना ली। इसका एक बड़ा कारण जीत के प्रति भाजपा का अति आत्मविश्वास दिखाना भी एक कारण हो सकता है। 

10- उलटा पड़ा ये दांव


माना जाता है कि चुनाव को लंबा खींचने के पीछे यही रणनीति थी कि इससे भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को ज्यादा से ज्यादा चुनाव प्रचार करने का अवसर मिले और वह उसका लाभ उठा सके। लेकिन अब चुनाव परिणाम बता रहे हैं कि भाजपा को चुनाव के अंतिम चरणों में ज्यादा नुकसान हुआ है। शुरुआती चरणों और मध्य के चरणों में भाजपा ने बेहतर प्रदर्शन किया है। यदि कम चरणों में चुनाव होते तो शायद भाजपा को कम नुकसान होता।
कम सीट लाने का कारण कुछ भी हो लेकिन भाजपा को इस पर मंथन करना चाहिए की इतना विकास कार्य होने के बाद भी उत्तरप्रदेश की जनता क्यों नाराज थी।

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