क्या चीन का अमोघास्त्र है करोना वायरस ? -जयराम शुक्ल

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क्या चीन का अमोघास्त्र है करोना वायरस ? -जयराम शुक्ल



क्या चीन का अमोघास्त्र है करोना वायरस ? -जयराम शुक्ल


चीन में एक दार्शनिक थे सुन त्जू। बहुत पहले वहां के शासकों को एक मंत्र दिया था- युद्ध के बगैर शत्रु को हराना ही सबसे उत्तम कला है और यह कला आर्थिक ताकत से सधती है। करोना ने जिस तरह विश्व की अर्थव्यवस्था को निपटाया है उससे यह लगने लगा है कि चीन ने बाबा सुन त्जू के विचार को चरितार्थ करने के लिए अपनी प्रयोगशाला से वायरस का अमोघास्त्र तैयार किया है। उधर लाकडाउन में फँसी दुनिया मौत के आँकड़े का हिसाब लगा रही इधर चीन के कल कारखाने पीपी किट्स, सेनेटाइजर्रस और मास्क बना रहे हैं।

साम्यवादी चीन का आर्थिक साम्राज्यवाद ठीक वैसे ही अहंकार के चरम पर है जैसे कि सोने की लंका के अधिपति रावण का था। उसे न दुनिया की परवाह है न ही अपने कुल की। इस लक्ष्य को हाँसिल करने के लिए चीन ने नैतिकता और मान मर्यादा को ताक पर रख दिया है। करोना महामारी प्राकृतिक नहीं वरन् मानव जनित त्रासदी है जो प्रत्यक्ष युद्ध से कहीं ज्यादा भीषण, कहीं ज्यादा मारक। उसने दुनिया को बताया कि जो काम मीसाइलें नहीं कर सकतीं वह एक अदृश्य विषाणु कर सकता है।

आज जहां दुनिया की अर्थव्यवस्था व्यवस्था चरमराकर ध्वस्त होने के करीब है वहीं चीन करोना वायरस फैलाने के साथ ही उसके इलाज और उपकरणों की तिजारत कर रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो वुहान की प्रयोगशाला से करोना वायरस के निकलने से पहले ही वह इसके इलाज के उपकरणों से जुड़े कारखानों की श्रृंखला खड़ी कर दी थी और उसके गोदाम ऐसे उत्पादों से भर चुके थे। एक उदाहरण- इस करोना काल में जहां मुकेश अंबानी को 5.8 अरब डालर का नुकसान हुआ वहीं आनलाइन शापिंग के प्लेटफार्म अलीबाबा का मालिक जैक माँ  दो महीने के भीतर ही एशिया का शीर्ष पूँजीपति बन बैठा। अलीबाबा आज की तारीख में करोना की चिकित्सा से जुड़े उपकरणों की आपूर्ति का सबसे बड़ा आनलाइन शापिंग प्लेटफार्म है।

आगे की कुछ बात करें उससे पहले चीन के चरित्र को एक बार फिर भलीभांति समझ लें। चीन का भारत के साथ रिश्ता दगाबाजी का रहा है। चाऊ-एन-लाई भारत पंडित नेहरू से मित्रता निभाने आए..'हिन्डि चिनी भाय भाय' का नारा चाऊ के मुँह से ही निकला था। नेहरू अपने पंचशील पर ही मुदित थे, चाऊ ने बीजिंग पहुँचते ही आर्मी को भारत पर आक्रमण के आदेश दे दिये। परिणाम यह हुआ कि हम भारतीयों के हिस्से आया प्रदीप का लिखा लताजी का गाया वह कारुणिक गाना.. ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर लो पानी..। वह अक्साई चिन के हजारों वर्ग किलोमीटर पर कब्जा जमाए है और हम आज भी आँखों में पानी भरे बैठे हैं।

वह पाकिस्तान के आतंकवादियों का खुल्लमखुल्ला मददगार है। शहरी और जंगली माओवादी उसके रसद-पानी और हथियारों के दमपर- भारत तेरे टुकड़े होंगे..का एजेंडा चला रहे हैं। इधर हमें जब होश आता है तो हम चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का नारा लगाने लगते हैं..डब्ल्यूटीओ के समझौते को ध्यान में लाए बगैर। चीन हमारी जीवनशैली में घुस चुका है वह हमारे स्वाद में शामिल है। चीन अजीबोगरीब साम्यवादी देश है। विश्व में इस देश की शासन प्रणाली सबसे ह्रदयहीन, क्रूर और खुदगर्ज  है। वह पूँजीपरस्त साम्राज्यवाद का सबसे बेशर्म प्रादर्श बनकर उभरा है। 

वह अपनों का भी सगा नहीं। 1989 में थियानमन चौक पर लोकतंत्र की माँग करने वाले 40 हजारों युवाओं छात्रों पर तोप से गोले बरसाए थे और टैंकों से रौंंदा था। पाकिस्तान के इस्लामी आतंकवाद को ईंधन देने वाले चीन ने स्वयं अपने यहां उइगर मुसलमानों का कत्लगाह खोले हुए है। वह बुजुर्गों और बीमारों को अनुत्पादक जंतु से ज्यादा कुछ नहीं समझता, इसलिए प्रायः यह खबरें आती रहती हैं कि वह जैविक और रसायनिक हथियारों का परीक्षण ऐसे ही लोगों पर करता है। सीमा से लगे शैतान देश उत्तर कोरिया को छोड़कर सभी उसकी विस्तारवादी नीति से त्रस्त हैं। तिब्बत पर उसका कब्जा तो है ही, हांगकांग को अपनी बूटों के तले नियंत्रित करता है। ताइवान, फिलीपींस, वियतनाम जैसे देशों पर उसकी वक्रदृष्टि बनी ही रहती है। वह सोने के रथपर सवार होकर रावण की भाँति त्रैलोक्य विजय की लालसा रखता है। 

चीन के दगाबाजी का इतिहास जानते हुए भी हम उसके साथ कारोबारी रिश्तों को परवान पर चढ़ाए बैठे हैं। चीन भारत के साथ 60 अरब डालर का सालाना करोबार करता है जबकि भारत का चीन के साथ महज 10 अरब डालर का व्यवसाय होता है। यह समझ में नहीं आता कि चीन के साथ हमारी क्या व्यवसायिक अपरिहार्यता है। जब हम स्वदेशी की बात करते हैं..तभी वह दीपावली में हमें मिट्टी के दीये भेज देता है। हमारे छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों पर सबसे बेरहम मार यदि किसी की है तो चीन की है। अब तो फल-फूल, तरकारी भी वहां से आने लगी है। चीन का एक फंडा है..कम मार्जिन ज्यादा व्यवसाय। गरीबों का सबसे सस्ता विकल्प चीनी वस्तुएं बनी हुई हैं। हम बहिष्कार की बात तो करते हैं लेकिन चीनी वस्तुओं के विकल्प में हमारे पास क्या है..? न हम इसकी चर्चा करते और न ही इस दिशा में कोई प्रयत्न। 

करोना महामारी को वह अपने आर्थिक साम्राज्य के विस्तार के लिए सुअवसर की तरह देख रहा है। शैतानियत भरी चतुराई के साथ विश्व भर को करोना बाँट चुका चीन अब स्वयं लाकडाउन से बाहर है। वुहान के कारखाने चल रहे हैं। पीपी किट और करोना परीक्षण के औजार का उत्पादन करने में वहां के उद्योग चौबीस घंटे जुटे हैं। भारत की अर्थव्यवस्था और यहां के नागरिक लाकडाउन के शिकंजे में फँसकर पस्त हैं। कुछ नहीं सूझ रहा कि अब आगे क्या..? यही हाल यूरोप का है। अस्तित्व में आने के बाद से अब तक में अमेरिका अपने सबसे दुर्दिनों के बीच जी रहा है। फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, इटली, स्पेन जैसी आर्थिक शक्तियां घुटनों के बल पर हैं। दुनिया सदी की सबसे भीषण मंदी के मुहाने पर बैठा है और चीन रावण की तरह बेशर्म अट्टहास कर रहा है। यह भी नोट करने वाली बात है कि चीनी वायरस की चपेट में सबसे ज्यादा वही देश हैं जो नाटो के सदस्य हैं। यह संयोग या दुर्योग तो कदापि नहीं है..सीधी साजिश या सामरिक रणनीति का हिस्सा है।

करोना वयरस प्राकृतिक नहीं है..चीन में यह आवाज उठाने वाला वह वैज्ञानिक लापता है। वहां जिसने भी इस वायरस के रहस्य से पर्दा उठाने की कोशिश की गायब हो गया। अमेरिका, आस्ट्रेलिया समेत कई अन्य देश कह रहे हैं कि यह चीनी वायरस उसकी प्रयोगशाला की उपज है। चीन ने वुहान की लैब से फैले इस वायरस की सत्यता को छुपाया है। चीन इसके लिए अमेरिका पर आरोप लगा रहा है। 

आश्चर्य की बात यह कि विश्व स्वास्थ्य संगठन चीन के साथ खड़ा दिखता है। यह एक नई विश्व व्यवस्था है। अब तक हम यूएनओ और उसके अनुषांगिक संगठनों को अमेरिका का तोता मानकर चलते थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस मिथक को तोड़ दिया। इस संगठन के अध्यक्ष टेड्रोस अधनाँम खुलेआम अमेरिका से सवाल करते हैं कि वे किस आधार पर चीन को कठघरे में खड़ा करना चाहते हैं। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन(डब्ल्यूएचओ) के प्रमुख ट्रडोस दरअसल करोना आतंकवाद के मास्टरमाइंड की भूमिका में हैं। पहले जान लें कि ये महाशय हैं कौन..? मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक ये भुखमरे अफ्रीकी देश इथोपिया के रहने वाले हैं। इन्हें इस पद तक पहुँचवाने की भूमिका चीन की ही रही है। चीन जब डब्ल्यूएचओ अध्यक्ष के लिए इनके नाम की पैरवी कर रहा था तब शेष दुनिया को यह नहीं मालूम कि चीन की दिमाग में क्या जहर पल रहा है और भविष्य में मिस्टर ट्रडोस का कैसा इस्तेमाल करने वाला है। ट्रडोस डब्ल्यू एच ओ के ऐसे पहले अध्यक्ष हैं जो पेशे से डाक्टर नहीं हैं। 

विश्व में करोना की सनसनी फैलाने में ट्रेडोस का योगदान है। इन्होंने ही बीमारी को पैंडेमिक घोषित किया और साथ में लाकडाउन का मंत्र भी दिया। लाकडाउन यानी की हर तरह की तालेबंदी। इस तालेबंदी ने विश्व की अर्थव्यवस्था को वेंटीलेटर में डाल दिया। दुनिया के किस देश में कितने पीडित हुए और उसमें कितने मरे, किस देश का आँकड़ा क्या है..यह सब सहज उपलब्ध है..बस यहां एक जिक्र जरूर करना है कि..तमाम अपीलों के बाद भी स्वीडन ने अपने यहां लाकडाउन घोषित नहीं किया, सोशल डिस्टेंसिंग, हाथ धोने और सेनेटाइजेशन का अभियान चलाया। यूरोप-अमेरिका में सबसे कम मृत्युदर (12%) स्वीडन की ही है।

करोना फ्लू का ही एक रूप है..अलग सिर्फ एक मायने में कि इसका टीका नहीं बना और कोई विशेष दवा ईजाद नहीं हुई। चीन पोषित मीडिया और उसके प्रपोगंडा तंत्र ने यह फैलाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी कि यह बीमारी किसी भी देश का सर्वनाश कर सकती है। जबकि करोना पीड़ितों की मृत्युदर अन्य संक्रामक बीमारियों से कफी नीचे है। हम गुजरे जमाने में प्लेग, हैजा, स्पेनिश फ्लू, इन्फ्लूएंजा में हुई मौतों के आँकड़ों में नहीं जाते। विश्वभर में किस बीमारी से कितने लोग प्रतिवर्ष मरते हैं..उसके मुकाबले करोना कहां बैठता है..विश्व स्वास्थ्य संगठन की बेवसाइट में ये आँकड़े दर्ज हैं। हम भारत में ट्यूबरकुलोसिस यानी कि टीबी की बात करते हैं। भारत में टीबी के लगभग 2.5 करोड़ मामले प्रतिवर्ष आते हैं इनमें से 4.4 लाख लोगों की मृत्यु हो जाती है। अन्य बीमारियों के फैलने और मरने वालों के भी आँकड़े उपलब्ध हैं। अपने देश में कुपोषण से ही हर साल दो लाख से ज्यादा मौतें हो जाती हैं। 

करोना को वैश्विक महामारी बताते हुए सनसनी फैलाकर विश्व की अर्थव्यवस्था को ताले में बंद करना चीन की बहुत बड़ी साजिश का हिस्सा है..यह बात प्रायः सभी राष्ट्राध्यक्ष समझ चुके हैं। चीनी वायरस करोना प्राकृतिक नहीं वरन् जैविक हथियार है..इस बात का खुलासा आज नहीं तो कल हो ही जाएगा.. लेकिन चीन इस मुसीबत से खुद को बरी करके दुनिया को उसके शिकंजे में डाल देगा किसी ने अंदाजा नहीं लगाया होगा।

द्वितीय विश्वयुद्ध में हिरोशिमा-नागासाकी में परमाणु विध्वंस के बाद से ही युद्धपिपासुओं में यह विचार शुरू हो गया था कि.. क्या ऐसा कोई हथियार ईजाद नहीं हो सकता जिससे मनुष्य तो मर जाएं लेकिन उसकी दौलत बची रहे। हाइड्रोजन बम व अन्य औजारों की चर्चाओं के साथ रासायनिक और जैविक हथियारों की बातें सामने आ रहीं थी। क्या चीनी वायरस करोना इसी विचार की उपज है..? क्या चीन अपने पुरखे सुन त्जू के विचारों को चरितार्थ करते हुए बिना युद्ध किए ही विश्वविजय पर निकला है..?
क्या करोना के लाकडाउन से निकलकर विश्व की अर्थव्यवस्था फिर पटरी पर आ पाएगी ? क्या दुनिया के शेष देश चीन से उसका अपराध कबूल करवाकर उसे सबक सिखा पाएंगे.? इस नई विश्वव्यवस्था में क्या अमेरिका के स्थान पर कोई दूसरी नियामक ताकत उभरेगी..? ऐसे कुछ सवाल है जो फिलहाल हम सभी भुक्तभोगियों के दिमाग को मथते रहेंगे..।

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